Ballai दर्दर मुनि के नाम पर लगने वाला ददरी मेला वैष्णव धर्म का महाकुंभ है


Ballai दर्दर मुनि के नाम पर लगने वाला ददरी मेला वैष्णव धर्म का महाकुंभ है

बलिया जनपद में भृगु मुनि की तपोस्थली पर उनके शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर लगने वाला ददरी मेला वैष्णव धर्म का महाकुंभ है। इसकी शुरुआत भृगु मुनि के शिष्य दर्दर मुनि ने वैष्णव यज्ञ के माध्यम से की थी। इस यज्ञ में 88 हजार ऋषि मुनियों ने भाग लिया था।

वर्तमान में संत समागम की परंपरा धीरे-धीरे विलुप्त होती गई। लेकिन अब भी कार्तिक माह में पूर्णिमा के दिन गंगा में स्नान करने के लिए जनपद और गैर जनपद के लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। स्नान व ध्यान करने के बाद श्रद्धालु भृगु मुनि और दर्दर मुनि का दर्शन व पूजन कर पुण्य फल की प्राप्ति की कामना करते है। यूपी-बिहार की सरहद पर लगने वाला ददरी मेला आज भी पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यही नहीं मेला सांस्कृतिक चेतना को जगाने का काम भी करता है। ददरी मेला और भृगु की तपोस्थली की कहानी ऋषियों के विवाद से जुड़ी हुई है। एक बार इस बात को लेकर बहस छिड़ गया कि त्रिदेवों में कौन बड़ा है? इस दौरान देवों की परीक्षा लेने के लिए भृगु मुनि सबसे पहले ब्रह्मदेव और शंकर के यहां पहुंचे, जहां उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। तत्पश्चात भृगु मुनी भगवान विष्णु के यहां पहुंचे और भगवान विष्णु के छाती पर लात मारा। लेकिन भगवान विष्णु क्रोधित होने के बजाय मुस्कराते हुए मुनि का पैर सहलाया और पूछा कि मुनिवर आपके कमल समान पैर में कहीं चोंट तो नहीं लगी। यह मधुर भाव देख मुनि समझ गए। मुनि ने भगवान विष्णु से पाप से मुक्ति के लिए मार्ग पूछा। जिस पर भगवान विष्णु ने उपाय बताया कि तीनों लोक में जाओ और यह मृग छाला जहां गिर जाएगी, वहीं तपस्या शुरू कर देना। इसके बाद भृगु मुनि ने तीनों लोक का भ्रमण किया।

जहां बलिया के सरयू-गंगा तट पर उनके पीठ पर चिपकी मृग छाला गिर गई। जहां भृगु ने तपस्या कर पाप का प्रायश्चित किया। इस संबंध में साहित्यकारों का मानना है कि कालांतर में भृगु मुनि के शिष्य दर्दर मुनि ने भृगु के तपोस्थली पर विशाल वैष्णव यज्ञ कराया। जिसमें 88 हजार ऋषि मुनियों ने भाग लिया। संत समागम के बाद गंगा-सरयू संगम तट पर यज्ञ के अंतिम कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्नान कर यज्ञ की पुर्णाहुति की गई। इसके बाद से प्रत्येक वर्ष संत समागम होने लगा। यहां संत और ऋषि मुनि कार्तिक मास में आकर यज्ञ-तप के साथ ही आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते थे। इसके बाद यही संत समागम एक राष्ट्रीय स्तर के मेला का रूप धारण कर लिया।

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